तुम्हारी प्रतीक्षा में
यह बदलाव स्वाभाविक था..
निष्ठुर बनना मेरा औचित्य नहीं था
और हुआ भी नहीं
मैं बस अन्य को
ऐसा प्रतीत होने लगा
फिर जैसे कोई स्वछंद हवा
जो आच्छादित वृक्षों की निद्रा असहज
भंग कर देती है...
वैसे ही निर्भीक हो गया..
और जैसे कोई सरिता(नदी) पत्थरों को चीरती
मुस्कुराती
बह निकलती है ना
अपने अस्तित्व को
विशाल उदधि(समंदर) में समाप्त करने..
ठीक उसी तरह..
किसी समूह में मिलकर
सुख मिलने लगा
अलगाव नहीं
और ना ही स्वयं को भिन्न दिखाना...
मैं बस ऐसा प्रतीत भर होता हूँ
दर्पण अब भी मेरे भीतर का
वही मनुष्य उकेरना चाहता है
जो व्यर्थ मुस्कुराता था...
-राम त्रिपाठी
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