Friday, 1 April 2016

कुछ भी ना लिखूँ...

कुछ भी लिख देने से अच्छा है
कुछ भी ना लिखूँ..
क्यूँ पन्नों पर बे फिज़ूल
स्याही को फैलाता चलूँ

ऐसा लगता है
कुछ रोज़ घर की दीवारों से
बेमतलब की बात करूँ
उनकी दरारों को छूकर
उनके दर्द का एहसास बनूँ
और खिड़कियों की काँच पर लगी भाप पर
तुम्हारा नाम लिखूँ
फिर इंतज़ार करूँ
एक ख्याल के दिल से टकराने का...
और तुझे पहले से करीब पाने का..

इंतज़ार भी मोहब्बत के महीने का
और तेरी जुल्फों की छाँव में सुकूँ पाने का..
एक सुबह जो तेरे चेहरे के मानिंद हो
और एक शाम तेरी आगोश में गुनगुनाने का..

ऐसे ही कुछ भी लिख देने से तो अच्छा है ना
की कुछ भी ना लिखूँ...

©राम