Tuesday, 22 December 2015

अकड़ू लेखक...

क्या मैं ऐसा कुछ लिखूँ
जिससे ये साबित हो जाए
कि मैं एक नासमझ, अहंकारी
और एक बेहद चिढ़ा हुआ लेखक हूँ..

जिसको ज्यादा तवज़्ज़ो देना
शायद सही नहीं होगा...

मैं कुछ लिखते-लिखते
कहीं और भटक जाता हूँ,
क्यूँकि जब मैं ज़िन्दगी के
ऐश-ओ-आराम को लिख रहा होता हूँ..

तब कोई मेरा पैर पकड़ कर कहता है
साब, बूट पालिस कर दूँ क्या???

और जब किसी के प्रेम से
बिछड़ने और तड़पने का
मंजर देखता हूँ..
तब आप बताईये
कि उस वक़्त मैं माशूक की
गर्म बाहें कैसे लिखूँ..

...ऐसा ही होता है
जब किसी के लबों की मुस्कराहट चुनकर
पन्नों तक लाता हूँ..
तब आँखों से ठोढ़ी तक
जाने की जद्दोजहद में
कुछ आँसू उन्ही होंठों पर
थोड़ी देर तलक टिक जाते हैं...

बस हाँ लिख रहा हूँ
क्यूँकि लिखने की ज़िद बरकरार है...

अच्छा बुरा आप निर्धारित करें...

©राम

Saturday, 12 December 2015

तुम नहीं गम नहीं..

मेरी फ़िक्र की नुमाइश करना बंद कर
मुझे इल्म है बेवफाई में तेरे खुदा होने का

जिस्म पत्थर है तो दिल भी पत्थर ही होगा
फिर ग़म क्या साथ रहने का, जुदा होने का..

मयस्सर था तो उसे चाँद समझ बैठा
भूल गया दिन बहाना है उसके गुमशुदा होने का...

©राम