Sunday, 27 September 2015

कभी आओ मिलने के बहाने...

इस ऊँचाई से
मुझे ये फर्क लगता है
कि तुम खोये नहीं
बस दूर हो...
कभी आओ
जो मिलने के बहाने
तुम्हे मैं पंख दिखलाऊँ
की कैसे उड़ रहे हैं
आसमाँ में ये परिंदे...
की कैसे तितलियाँ
फूलों के संग इठला रही हैं...
तुम्हे ये भी दिखाऊँ
वो नदी जो बिन थके
बहती रही है
जो हमको बाँटती है
असल में रास्ता है
जो तुमसे होकर गुजरता है...

अभी गुमसुम अकेला हूँ
तो ये सब सोचता हूँ...
जो तुम आ जाओगे
तो फिर हम बातें करेँगे...
हवा का साथ पाकर
यूँ ही कहीं उड़ते फिरेंगे...

©राम
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Tuesday, 22 September 2015

मेरी कलम का जादू...

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काश मैं एक लेखक के साथ-साथ एक जादूगर भी होता,
तो मेरी कलम से ना जाने मैं कैसे-कैसे करतब दिखाता।।।

सबसे पहले तो मैं अपनी कलम से उस नन्ही लड़की का छोटा कमरा, जहाँ वो पैरों को मोड़कर सोती है उसे थोडा बड़ा कर देता, ताकि वो पैरों को फैलाकर सुकून से सो सके।

नहर पर पुल ना होने की वजह से नन्हे राजू को हर रोज स्कूल जाने में देरी होती है, मैं उसी नहर पर अपनी कलम से एक छोटा पुल बना देता और राजू दौड़ते हुए पुल पार कर जाता।।

मीलों तपती धुप में सर पर पानी का मटका लिए पानी की तलाश करने वाली औरतों के लिए अपनी कलम से उनके घर के पास ही एक तालाब बना देता..
जहाँ वो बिना थके मुस्कुराते हुए पानी भरती..।।

मुसाफिर को उसकी मंजिल से अगर मिला नहीं पात़ा तो क्या??
अपनी कलम से उसके लिए रास्ते में एक अमलताश का पेड़ बना देता जो उसे छाँव और कुछ पल का आराम देता।।

ठिठुरती ठण्ड में फुटपाथ पर सोने वालों की चद्दर अपनी कलम से थोड़ी और बड़ी कर देता ताकी उनके पैर चद्दर से बाहर ना निकलते और उनकी नींद ना टूटती।।

काश मैं एक लेखक के साथ-साथ एक जादूगर भी होता,
तो मेरी कलम से ना जाने मैं कैसे-कैसे करतब दिखाता..

पर इस काश और वास्तविकता के बीच का अंतर देखकर मन को दुःख होता है,और शायद इसी उलझन में मेरी और मेरी कलम की अनबन रात भर चलती है,पर यथार्थ तो यह है की मैं केवल एक अदना सा लेखक हूँ, कोई जादूगर नहीं।।
😔😔😔😔😔😔😔😔😔

-राम त्रिपाठी

Tuesday, 15 September 2015

मेरी मान हवा बन जा...

मैं फूँक दूँ तू उड़ जा..
ऐ दिल मेरी मान हवा बन जा...

अच्छा बनना तेरी फितरत नहीं
पर इतना तो कर,
पहले ज़ख्म था ना,अब दवा बन जा...
मेरी मान हवा बन जा...

रफ्ता रफ्ता उम्र गुज़री
जिस्म बूढ़ा हुआ ..
ले उम्र की गोली खा, फिर जवाँ बन जा
मेरी मान हवा बन जा...

©राम

Tuesday, 8 September 2015

इंतज़ार...

किसी के रोते रोते
सो जाने का
सच यही है...
कि वो टूटा ज़रूर है...
पर ज़िंदगी की
तोहमतों ने उसे भरसक थकाया भी है...

फिर किसी को लगा
दीवारों में कैद होकर
रोना तो कमजोरी है...

हाँ तो उसे लगता है
कि तकिया और बिस्तर
उसके साथ रो रोकर
झील बन जाएँगे,
इसलिए भी रोता है...

पर फिर उसी झील में
कोई कमल मुस्कुराता हुआ खिले
उससे पहले एक आइना है
जो बड़ी अजीब सी हँसी हँसता है...

वो शायद इसलिए भी
कि जिस शख्स को बरसों पहले
मैंने इसी आईने में
कैद कर दिया था...
वो बाहर निकल कर
ये बताना चाहता है
कि ज़िन्दगी सुबह और शाम
की जद्दोजहद से बढ़कर
एक काफिला है..
जो ख़ानाबदोश सपने लिए
हर वक़्त घूमती है...
तब फिर ये अंत कैसे
और,
और जो सिसकियों की
टीस महसूस करे वो अभी मिला कहाँ???

जो ये ना पूछे की रोये क्यूँ??
बल्कि उसी तकिये और बिस्तर वाली
झील में तैरकर
तुम्हे किनारे तक लाए...

इसलिए इंतज़ार...
और इंतज़ार ही
एक दिन मरहम बनेगा
हर एक ज़ख्म का...

©राम

Wednesday, 2 September 2015

मैं अँधेरा हूँ, मुझमें रात बहुत है...

नज़र सबर इश्क़ एहसास बहुत है,
मैं अँधेरा हूँ मुझमें रात बहुत है...

सूखी है दिल की ज़मीं पर मरूँगा नहीं
अभी उम्मीद-ए-अब्र में बरसात बहुत है...

तुम्हे पाना था अपने हुनर पर, माँगना कैसा,
मांगते तो शहर में खैरात बहुत है...

(उम्मीद-ए-अब्र: उम्मीद का बादल)

©राम