Friday, 31 July 2015

ईंट और सीमेंट...

ये ईंट और सीमेंट का प्यार
ही तो है..
जिसने जोड़े रखा दीवार को
और हम मुस्कुरा रहे थे
की घर हमने बनाया...

©राम

जो दिल का ख़ास है...

मेरे अपने
मेरे सपने
वो टूटा आइना
दर ओ दीवार पर
लटके हुए एहसास हैं...

तू मुझसे दूर है
मज़बूर है
और नाराज़ है,
पर तेरी हँसती हुई तस्वीर
मेरे पास है...

तेरा वादा
ये दिल आधा
मोहब्बत पूरी सी
समझने में भला किसका
पर फिर भी आस है...

अकेली रात
अँधेरा साथ
समंदर शोर गुल
कोई आये मैं हँस तो दूँ
जो दिल का ख़ास है...

©राम

Wednesday, 29 July 2015

तुम्हारी प्यार की सर्दी में...

तुम्हारी प्यार की सर्दी में,
कुछ यादें हैं जो ओस की बूँद बनकर..
मेरी पुरानी डायरी के कुछ पन्नो को गीला कर गयी..
अब ओस गिरने से शब्द बिल्कुल तुम्हारी कमर की तरह मोटे हो गए हैं
तुम्हारी कमर से याद आया 
तुम आइने में खुद की कमर
काफी देर तक देखती रहती थी,
और मेरी तरफ देखते हुए
नाक सिकोड़ती थी
फिर मैं मेरी कविताओं में तुम्हारी कमर को,
बिल्कुल उतना ही लिखता था
जितना तुम्हे अच्छा लगता था..
मुझे तो लगता था
कि मेरी कलम से निकले
हर एक शब्द का उद्देश्य तुम्हे खुश करना था..
सच कहूँ तो मुझे अच्छा भी लगता था,
पर भीगने की वजह से कुछ शब्द दिखाय़ी नहीं दे रहे
ये भी नहीं दिख रहा
कि पिछले दिसंबर में जब हम मिले थे
तो मैंने तुम्हे गुलाबी स्वेटर में देखा था
तो क्या लिखा था...
फिलहाल तो मैं पन्ने पर गिरी
ओस की बूँद के सूखने का इंतज़ार कर रहा हूँ..

-राम त्रिपाठी

Saturday, 25 July 2015

हमारी कल की मजबूरी, कभी सोने ना देगी
रुके नींदे इन आँखों में, तो कोई ख्वाब देखूँ...

©राम

दिल चमकता है तेरे होने से
उसे मेहताब कह दूँ क्या..
तू जो आये मेरे आसमा में
तुझे चाँद कह दूँगा..

©राम

Thursday, 23 July 2015


दिल में अपना हाल छुपाकर रह जाते हो..
तुम सपनो में मेरे कैसे बन जाते हो..
मुझसे प्रेम नहीं करते ये कहते कहते
कोई हँस के बात जो कर दे जल जाते हो...

©राम

Wednesday, 22 July 2015

हुई मुद्दत कोई आया नहीं...

ये जो खंडहर है मेरे अंदर
जो टूटी खिड़कियाँ
और जो जाले लग गए
दिल-ओ-दीवार पर
ऐसे ही नहीं है, वक़्त लगा
शब्द शब्द बिखरना पड़ा
फिर लगा कोई अपना नहीं
और कोई साया नहीं
कुछ मुफलिसी थी जेब की भी
कुछ अकेलापन भी था
उस वक़्त कोई अपनाया नहीं
हुई मुद्दत कोई आया नहीं...

©राम

सुना है तुम्हारे हाथों से कोई इंसान मर गया,
यहाँ पाँवों तले कोई चींटी दबे,
तो दिन अच्छा नहीं जाता...

©राम

Tuesday, 21 July 2015

तमाम ख्वाहिशें...

कुछ ख्वाहिशें कंधे पर लादकर
जो सुबह घर से निकला था
नाकामी की बारिश में
कुछ यूँ भीगी
की घर की छत पर लगे
डारे पर सूखने के लिए डालना पड़ा..
धुप तेज़ थी
उधर आँख लगी
फिर ना जाने कब
गीली ख्वाहिशें सूखकर हलकी हो गयी
और हवा का साथ पाकर उड़ गयी
किसी और के छत पर
.............................
किसी ने उस छत पर देखा उसे
और फिर देखा इधर उधर
फिर उसने भी लाद ली...
उन्ही ख्वाहिशों को हल्का समझकर..

मैं नाराज़ था
की कोई और ले गया
मेरे सुबह और शाम के रोजगार को
और खुश भी था
की चलो इस शहर में
कोई तो है हूबहू मेरे जैसा...

©राम

Sunday, 19 July 2015

दिल लिए जाना...

जिन पटरियों पर
कभी सिक्के रखकर
बड़ा करते थे,
अगर अब कभी जाना
तो तुम्हारा दिल लिए जाना
शायद बचपन की कलाकारी
तुम्हारा दिल बड़ा कर दे..

©राम

Friday, 17 July 2015

जो रास्ता मंज़िल तक ले जाता है,
आज उसी रास्ते पर था,
तभी किसी ने बताया की
उसी रास्ते पर RTO वाले अंकल
चालान काट रहे हैं...

बस यूँ ही नहीं बनती, मेरी और ज़िन्दगी की...
(वो क्या है, मैंने हेलमेट नहीं पहना था)

Thursday, 16 July 2015

मेहनताना...

मेहनताना दे तो चला जाता हूँ..
वरना दिल के कूचे में जो बच्चा
हर शाम मेरी राह तकता है
उसे क्या दूँगा..

©राम

Tuesday, 14 July 2015

तू मेरा ख्वाब है अनछुआ सा...

ये कैसी बेबसी है कि तुझे बस देखता हूँ..
छू नहीं सकता ..
ये कैसी बेबसी है कि तुझे बस सोचता हूँ..
तेरा हो नहीं सकता..
कुछ नहीं बस एक एहसास है,
गम के धुआँ सा।।
तू मेरा ख्वाब है अनछुआ सा।।

क्या ये तड़प बस मुझमें है या है तेरी भी कुछ मजबूरियाँ हैं..
तू है मेरे आगोश में, फिर क्यूँ अजब सी दूरियाँ हैं..
कुछ चोट है अहल-ए-वफ़ा पर,
दिल अभी बिखरा हुआ सा..
तू मेरा ख्वाब है कुछ अनछुआ सा ।।

इश्क की मुफलिसी ये तेरी देन है..
जो दर बदर तुझसा कुछ माँगता हूँ..
देने वाले को भरम क्या है, दिल क्या जाने ..
वो शोहरत-ए-बज़्म दे, मैं जिससे भागता हूँ..
की कल की चादरें ओढ़ी जमीं दिल आसमां सा ..
तू मेरा ख्वाब है अनछुआ सा ।।

वजन कैसे बताऊँ गम के जो तुझसे मिले हैं..
चल के तराज़ू में जरा सा तौलते हैं..
वफ़ा का नाम लिखकर जिनको डुबाना चाहता है ..
वो दिल के सागरों में दिन ब दिन तैरते हैं..
ज़हन में शूल हैं, दिल फिर भी फ़ना सा ..
तू मेरा ख्वाब हैं अनछुआ सा ।।

-राम त्रिपाठी

मेरी कलम का जादू...

काश मैं एक लेखक के साथ-साथ एक जादूगर भी होता,
तो मेरी कलम से ना जाने मैं कैसे-कैसे करतब दिखाता।।।

सबसे पहले तो मैं अपनी कलम से उस नन्ही लड़की का छोटा कमरा, जहाँ वो पैरों को मोड़कर सोती है उसे थोडा बड़ा कर देता, ताकि वो पैरों को फैलाकर सुकून से सो सके।

नहर पर पुल ना होने की वजह से नन्हे राजू को हर रोज स्कूल जाने में देरी होती है। उस नहर पर अपनी कलम से एक छोटा पुल बना देता और राजू दौड़ते हुए पुल पार कर जाता।।

मीलों तपती धुप में सर पर पानी का मटका लिए पानी की तलाश करने वाली औरतों के लिए अपनी कलम से उनके घर के पास ही एक तालाब बना देता, पानी से लबालब भरा हुआ।

मुसाफिर को उसकी मंजिल से अगर मिला नहीं पात़ा तो क्या, अपनी कलम से उसके लिए रास्ते में एक अमलताश का घना वृक्ष बना देता जो उसे छाँव और कुछ पल का आराम देता।।

ठिठुरती ठण्ड में फुटपाथ पर सोने वालों की देह पर एक बड़ी और मोटी चद्दर बना देता,ताकी उन्हें ठण्ड की सिहर का एहसास ही ना हो।

काश मैं एक लेखक के साथ-साथ एक जादूगर भी होता,
तो मेरी कलम से ना जाने मैं कैसे-कैसे करतब दिखाता..

पर इस काश और वास्तविकता के बीच का अंतर देखकर मन को दुःख होता है,और शायद इसी उलझन में मेरी, और मेरी कलम की अनबन रात भर चलती है,पर यथार्थ तो यह है की मैं केवल अदना सा लेखक हूँ, कोई जादूगर नहीं।।

©राम

अब ऐतबार कहाँ, जो तुम आये मेरे शहर,
मौसम अच्छा है, घुमो फिरो और चले जाओ।

©राम

Saturday, 11 July 2015

हमारी दूरियाँ समंदर भर की है
पर खारेपन में मुतमईन है,
इसको इल्म कहा
इस समंदर ने तो शहर बाँटा है...

©राम

तुम्हारे ना होने से...

लाख उठाये घडी का अलार्म
पर नींद है की घोड़े बेचकर सोती है,
जब से तुम गयी
नींद है की खुलती नहीं है

मुझे सवेरे नहाना तो याद है
नहाता भी हूँ
पर तौलिया कहाँ रखती हो, मिलती नहीं है..
किसी तरह मिल भी गयी
तो ज़िद पर अड़ जाती है
फिर अगली सुबह तक सूखती नहीं है...

गैस का लाइटर पिछले तीन दिन से ढूँढ रहा हूँ
आज मिला पर गैस है की
नखरे ही अलग, जलती नहीं है...
किसी तरह गैस जली
मैंने झट से दाल रख दिया,
तुमने जितना पानी बताया था उतना ही डाला..
फिर कूकर को बड़ी देर तक देखा
पर शीटी है की बजती नहीं है..

दोपहर में काम कर कर के
जब पसीना माथे पर बिना पूछे आ गया
मैंने जेब टटोला
फिर याद आया रूमाल तुम्हारे जाने से रूठी है
मुझे आजकल मिलती नहीं है..

इतनी अनजान बनती है घर की
आबो हवा
की रिमोट
दरवाजा
आइना
बालों की कंघी
मेरी किसी से बनती नहीं है...

अच्छा एक काम करो अब आ जाओ
मैंने मान लिया मैं गलत था
तुम्हारी एक रत्ती भी गलती नहीं है...
जीने को तो जी लेंगे किसी तरह हमदम
पर तुम्हारे बिना ज़िन्दगी चलती नहीं है...

©राम

Thursday, 9 July 2015

सोने का दिल...

पहली पहल की एक कहानी याद आयी

मैं हमनवाबी में शहर की गलियाँ
कुछ यूँ घूमा करता था
जैसे मोहल्ले के हर एक शख्स ने
मुझसे उधार लिया हो...
क्रिकेट खेलते वक़्त तो मानो
वर्मा जी की खिड़की ही
बाउंड्री का काम करती थी..
हँसी सिर्फ दाँत दिखाने के लिए
थोड़ी थी,
हँसी की पूरी फैक्ट्री लेकर घूमता था
पापा की साइकिल पर
और पापा की साइकिल मिलना मतलब
पैरों को पंख मिलना था...
उसी गली में जहाँ मेरी आवाज़ से
सब की नींद खुल जाती थी..
कल वर्मा जी पापा से पूछ रहे थे,
कि अपना राजू कहीं बाहर गया है क्या???
दिखता नहीं आजकल??
और मैं परदे के पीछे छुपकर
ये सोचता हूँ कि आखिर इतने सालों में
मैंने ऐसा कौन सा चमत्कार किया है
कि किसी अपने से बात करने का
वक़्त ही नहीं बचा...

©राम

Friday, 3 July 2015

एक अजीब सी चुप्पी है और वक़्त संज़ीदा है,
शायद कोई इश्क़ज़दा, रो रोकर चुप हुआ है..।

©राम