Tuesday, 30 June 2015

तुमसे प्यार करता हूँ...

कहीं दूर कस्बे का
रसूखदार हूँ
और दिल अल्हड़ है,
तुमसे प्यार करता हूँ,
यही बड़ी बात है...

©राम

Monday, 29 June 2015

ना जाने क्यूँ, मुझे बस और ट्रेन के ड्राईवर पर बहुत भरोसा होता है, ये वही लोग हैं जो मुझे शहर दर शहर घूमाते हैं पर मैंने आज तक उनसे ये नहीं पूछा कि, भैया, आपके पास लाइसेंस है क्या??
या फिर (as a driver) कही ये आपकी पहली एक्सपेरिमेंटल ट्रिप तो नहीं...???
बस मैं अंधविश्वास में आँखें बंद किये बैठा रहता हूँ इस भरोसे में कि आँख खुलने पर मैं अपने शहर में सकुशल रहूँगा।

ठीक इतना ही भरोसा है मुझे तुमपर और तुम्हारे प्रेम पर, अब इसे अन्धविश्वास कहो या फिर मुझे पागल समझकर हँसो।
मैंने आँखें बंद कर ली है फिर तुम मुझे इश्क़ की कितनी भी गालियाँ घुमाओ, क्या फर्क पड़ता है।

क्यूँकि इस कहानी के अंत का आभास हम दोनों को है।

©राम

Sunday, 28 June 2015

गुम्बद और चाँद...

जिस मज़ार पर धागा बाँधता हूँ
तुम्हारे नाम का..
उसी के गुम्बद के ठीक बगल
मुझे चाँद दिखता है,
मेरे घर के पास जो शिवाला है
वहाँ से ये नज़ारा साफ़ दिखता है...

©राम

note: the part of photography is borrowed from internet with due thanks to the photographer

कफ़न की फैक्ट्री...

सोच रहा हूँ एक ब्रांडेड कफ़न की फैक्ट्री शुरू करूँ...

ब्रांडेड मतलब इतना प्रचार करवाऊँगा कि लोगों को मेरी कंपनी की कफ़न के अलावा कोई और कफन अच्छी ही नहीं लगेगी..
हाँ सबसे बड़ी विशेषता तो बताना भूल ही गया...

हमारी ब्रांडेड कफ़न में एक बड़ी सी जेब होगी, जिसमें आप सोना चाँदी पैसे प्रॉपर्टी के पेपर(A4 साइज़ वाला) ऐसे कई जरुरी सामान रख पाएँगे..और साथ भी ले जा पाएंगे।

नोट: ये आईडिया मेरा कॉपीराईट है, कृपया इसे कॉपी ना करें..हाँ अगर कोई मरने वाला होगा तो हमारी कंपनी शुरू होने तक टाल सकता है। आपकी मेहरबानी होगी।

-राम

Saturday, 27 June 2015

ख्वाब कोई...

बुनकर ख्वाब कोई
रेशम सा
तेरी याद के धागों से
स्वेटर पहन लिया है
मेरी आदत छोड़
सब्र देख
अभी सर्दियाँ आने में वक़्त है...

©राम

Thursday, 25 June 2015

ये इश्क़ की बेबसी है या वफ़ा-ए-आसार है,
मैं हिचकियाँ बंद करता हूँ, तेरा नाम ले लेकर...

©राम

ये इश्क़ की बेबसी है या वफ़ा-ए-आसार है,
मैं हिचकियाँ बंद करता हूँ, तेरा नाम ले लेकर...

©राम

इस शहर दो चाँद हैं...

बेहतरीन ख्वाबों में
अभी उतरा नहीं था
कि तुम मिले
और नींद खुल गयी...

मैंने इधर उधर
बेख्याली में देखा
आइना अपनी जगह था
खिड़कियाँ बंद थी

धूप उतर आयी थी
मेरे बिस्तर पर
ठीक मेरे बगल
जहाँ कभी तुम होती थी

मैंने उसे सोने दिया
सुबह की धूप थी
पर थकी सी थी..

पर मिलना और बिछड़ना
बदस्तूर है..
शाम होते ही
किसी पहाड़ से जा यूँ लिपटती है,
जैसे मुझसे कोई रिश्ता ही नहीं

वही धूप जो कभी
तुम्हारे जिस्म को ओढ़ लेती थी...
और तुम कुछ नींद में बड़बड़ाते हुए
मेरी ओर सरक आती थी
मैं नींद में मुस्कुराता था
फिर बिस्तर के एक हिस्से में,
हम दोनों
और
एक हिस्से में
धूप को पनाह मिलती थी...

ना जाने कब तुम्हारी तरह हुई
ये धूप..
जब जाती है
तो रात का अँधेरा
कुछ देर तलक टिक सा जाता है ...

©राम

Tuesday, 23 June 2015

काश दिल भी पोर्टेबल(portable) होता,
जहाँ मन होता बस वही ले जाता...
पर ये साला तो internal hardisk की तरह
शरीर के अंदर चिपका हुआ है।

©राम

Monday, 22 June 2015

नैन पिया तेरा काजल बनकर
नैनन में बस जाऊँगा...
फिर याद तुझे मैं आऊँगा

घोर घनेरे बादल बरसे
काजल हूँ बह जाऊँगा
फिर याद तुझे मैं आऊँगा..

©राम

बालों में बार बार हाथ फेरने वाले,
जीन्स का शर्ट पहनकर
रफ एंड टफ लुक देने वाले
बिंदास अंदाज़
और
जो शहर में अपनी मस्ती में
घूमा करते थे,
जो कभी अपनी बुलेट की
आवाज़ से पुरे मुहल्ले
को उठा देते थे,
वो लड़के आखिर गए कहाँ...

"तुम्ही ने आदतें बदली
तुम्ही रफ़्तार में हो
शहर का नाम मत लेना
शहर ने कुछ नहीं बदला"

©राम

Saturday, 20 June 2015

मैं हर एक छंद
हर एक कविता में केवल
अर्ध्य सत्य लिखता हूँ..

जैसे मैं प्रेम से अनभिज्ञ होकर
प्रेम को अमलताश का वृक्ष लिखता हूँ..
पर उसकी छाँव में प्रेम कम
और शायद थकान ज्यादा पलती है...

जैसे भूख से कोई नाता ना होकर
कई बार चाँद को रोटी लिखा..
हाँ वही चाँद
जो कभी ज़मीन पर नहीं आया..

और फिर ये लिखा
कि मैं निर्भीक(निडर) हूँ
जबकि मैं डरता हूँ
सत्य से..
उस सत्य से जो अमिट है,
जो यह बताता है
कि उसे छोड़ बाक़ी सब
नश्वर है...

मैं अपनी हर एक कविता में
अर्ध्य सत्य लिखता हूँ...

जिसके साथ ने तुम्हे ऊपर उठाया
उसी को भूलकर, तुम्हे सब याद है...
बड़ा बनने में हर इंसा की
यही तरक़ीब है,
खुदा से बोल दूँ क्या,
कि अब सिर झुकाने में तुम्हे तक़लीफ़ है।

©राम

Thursday, 18 June 2015

उससे बिछड़ने के बाद
हर कोई उसी सा लगता है..
ये प्यार ही है ना
कहीं चीन जापान तो नहीं ...

©राम

Wednesday, 17 June 2015

मेरा दिल यूँ ना था...

पहले हल्का सा झटका लगा
फिर तूफ़ान आया
फिर मलबे में तबदील
मेरा दिल बेहाल हो गया...
शहर दर शहर हालत बताऊँ
तो पहले पुणे था
फिर मुम्बई बना
अब नेपाल हो गया...

©राम

Sunday, 14 June 2015

बरसात की पहली कविता..

है आज वो भी खुशनुमा
जिसका दिल कभी मगरूर था
ज़माने भर में अब शामिल नहीं
जो ज़माने में कभी मशगूल था

फिर हवाओं संग कुछ नमी भी है
और कुछ कश्तियाँ छोटी उँगलियों से बन रही हैं
तो क्यूँ इश्क़ बेमन से किया जाए
मैं लिखूँगा ग़ज़ल उसके होने पर
बस मेरे सूखे अल्फ़ाज़ों को
आज कोई बारिश भिगा जाए...

©राम

Saturday, 13 June 2015

वो सुंदर नहीं
बल्कि मुझे किसी कलाकार की
रचना सी लगती है...
और किसी रचना के
सुंदर होने का
कोई व्यापक पैमाना है ही नहीं...
इसलिए मैं उसे सुंदर नहीं कहता
केवल देखता हूँ
और फिर पलकों को बंद कर के
ये सोचता हूँ
कि क्या कहीं कुछ होगा
इससे भी अद्भुत...

©राम

note: the part of photography is borrowed from internet with due thanks to the owner.

Friday, 12 June 2015

इक आँधी में
सब कुछ बिखर गया
शहर रेत से भर गया

फिर शाख से पत्ते गिरे
और उन्ही पत्तों में मैं था...
मैं भी गिरा
हाँ मगर, गिरने से पहले 
हवा ने कुछ देर उड़ाया था
ये मानता हूँ...

©राम

note:part of photography is borrowed from internet with due thanks to owner.

Wednesday, 10 June 2015

इक दौर में क़यामत आयी थी...

रुखसार बेशुमार
नूर-ए-शोख में मुतमइन
वो मेरा रंग ले उड़ी
उसकी आँखों की जानिब
अज़ीब सी शाम थी
जैसे शब और सुबह को
टीले पर उतार लायी थी
सच कहूँ,,
इक दौर में क़यामत आयी थी
जब तुम आयी थी..

तल्ख़ राहें भी काफिलों से
हज़ार पैर दूर हो
पर उन होंठों पर पैबस्त
ख़ामोशी
मुझे आवाज़ देती है
वहाँ,
जहाँ निशान तेरा
मुझमें रूह आयी थी
सच कहूँ..
इक दौर में क़यामत आयी थी
जब तुम आयी थी..

©राम

Tuesday, 9 June 2015

नहीं आदत नहीं
ऐसा ही हूँ ..
कहीं जाने से पहले
मैं सब को देखता हूँ..

मुक़म्मल भीड़ में
मैं खुद को ढूँढता हूँ..
फिर तस्वीर से
कुछ चेहरे मिलाता हूँ...
किसी से मुस्कुराता हूँ
किसी से रूठता हूँ...

नहीं आदत नहीं
ऐसा ही हूँ ..
कहीं जाने से पहले
मैं सब को देखता हूँ..

©राम

इक दौर में क़यामत आयी थी,
जब तुम आयी थी...

©राम

Saturday, 6 June 2015

नज़र सबर इश्क़ एहसास बहुत है,
मैं अँधेरा हूँ, मुझमें रात बहुत है..

©राम

Friday, 5 June 2015

बादलों की तरह...

मैं अकेला हूँ अकेला
बादलो की तरह
ऊँचाई पर
ना धरती से जुड़ा
और ना ही आकाश से कोई रिश्ता
ठीक आकाश और धरती के मध्य
सम्पूर्ण कुछ भी नहीं

हाँ कभी कभी पहाड़ मिलते हैं
रास्तों में
पर वो भी बोलते नहीं ..
शायद नाराज़ हैं
किसी नदी के सूखने से...

और जब धरती पर
कुछ लोगों की झुंड देख
उनकी तरफ आगे बढ़ता हूँ..
तो रास्ते में नकचढ़ी हवा
मुझे ले जाती है अपने साथ
किसी दुसरे छोर..
जहाँ अनंत अँधेरा
और सन्नाटा होता है...
रात भर ठहरता हूँ वहीं..
और फिर ना चाहते हुए
धीरे-धीरे विलीन हो जाता हूँ
उसी अँधेरे में...
आखिर बादलों का अस्तित्व ही क्या...
काफिर हैं काफिर...

©राम

महीन जैसे मेहँदी
इश्क़ मेरा..
पत्थर जैसे तुम्हारे
दिल पर रगड़ती हो..
मुझे महीन..
और महीन करती हो..

इस इश्क़ की नौकरी में
मैं जितना पिसता हूँ..
उतना ही रंज में लाल
तुम होती हो...

©राम

Thursday, 4 June 2015

इसी चाँद में
किसी को मेहबूब का चेहरा नज़र आया
किसी को ज़िन्दगी बड़ी तो कभी छोटी लगी
मैं घर से दूर था
मुझे चाँद माँ की अधजली रोटी लगी...

©राम

Tuesday, 2 June 2015

मैं बड़ा शायर था किसी दूर बस्ती में
ये शहर तो बड़ा अजीब है,
यहाँ कोई जानता नहीं...

©राम

तुम होते नहीं...

नाराज़ है वो हमदम हसीना भी
की उसे देखकर पहले की तरह खोते नहीं

और, अब नाराज़ हैं तुमसे दर-ओ-दीवार तक..
की उनसे मिलकर अब तुम रोते नहीं...

ज़माने भर के मंजर गुजर गए उसकी आँखों में
उसे शिकायत है कि जहाँ ज़माना है, वहाँ तुम होते नहीं...

ख्वाब पलने में खासा वक़्त लगता है
तुम आसमा तकते हो रात भर, पर सोते नहीं..

©राम

Monday, 1 June 2015

अब मुन्नवर हो तमाम निगाहों में, तो क्या हुआ..
मैंने सबसे पहले कहा था, तुम मेरा चाँद हो..

©राम