Thursday, 31 December 2015
Tuesday, 22 December 2015
अकड़ू लेखक...
क्या मैं ऐसा कुछ लिखूँ
जिससे ये साबित हो जाए
कि मैं एक नासमझ, अहंकारी
और एक बेहद चिढ़ा हुआ लेखक हूँ..
जिसको ज्यादा तवज़्ज़ो देना
शायद सही नहीं होगा...
मैं कुछ लिखते-लिखते
कहीं और भटक जाता हूँ,
क्यूँकि जब मैं ज़िन्दगी के
ऐश-ओ-आराम को लिख रहा होता हूँ..
तब कोई मेरा पैर पकड़ कर कहता है
साब, बूट पालिस कर दूँ क्या???
और जब किसी के प्रेम से
बिछड़ने और तड़पने का
मंजर देखता हूँ..
तब आप बताईये
कि उस वक़्त मैं माशूक की
गर्म बाहें कैसे लिखूँ..
...ऐसा ही होता है
जब किसी के लबों की मुस्कराहट चुनकर
पन्नों तक लाता हूँ..
तब आँखों से ठोढ़ी तक
जाने की जद्दोजहद में
कुछ आँसू उन्ही होंठों पर
थोड़ी देर तलक टिक जाते हैं...
बस हाँ लिख रहा हूँ
क्यूँकि लिखने की ज़िद बरकरार है...
अच्छा बुरा आप निर्धारित करें...
©राम
Saturday, 12 December 2015
तुम नहीं गम नहीं..
मेरी फ़िक्र की नुमाइश करना बंद कर
मुझे इल्म है बेवफाई में तेरे खुदा होने का
जिस्म पत्थर है तो दिल भी पत्थर ही होगा
फिर ग़म क्या साथ रहने का, जुदा होने का..
मयस्सर था तो उसे चाँद समझ बैठा
भूल गया दिन बहाना है उसके गुमशुदा होने का...
©राम
Monday, 7 December 2015
Saturday, 5 December 2015
Friday, 13 November 2015
दिल की तुरपाई नहीं होती...
मोहब्बत शाम थी तो बैठे रहते जुल्फों में
यहाँ दिन में मुँह छुपाई नहीं होती
ये दिल शीशे का है, खद्दर का नहीं
इक बार टूट जाये तो तुरपाई नहीं होती
ग़ालिब शेर कहे तो रोने को दिल करता है
हमसे तो ख्वाब में भी बेवफाई नहीं होती..
पहले पहल का इश्क़ होता तो कर भी लेते
सच कहूँ तो अब रत-जगाई नहीं होती...
©राम
Thursday, 5 November 2015
तुम्हरी मुस्कान...
तुम पूछती हो ना..
कि तुम्हारा मुस्कुराना जरुरी क्यूँ है???
तो सुनो,
जब मैं उम्र की सेंचुरी लगाउँगा ना
तब तुम साढ़े निन्यानवे साल की रहोगी..
ठीक छह महीने छोटी..
और मैं तब तुमसे पूछूँगा,
की कैसी लगी मेरी सेंचुरी...
तब तुम केवल मुस्कुराओगी नहीं
बल्कि हँसोगी जोर जोर से...
और हँसते हुए कहोगी
की छह महीने और रुको मैं भी सेंचुरी लगा लूँगी ..
..................................................................
तुमने पढ़ा ना
मैंने सौ साल लिखा है,
पर इसका मतलब यह नहीं
कि मैं सौ साल जियूँगा
और हम सौ साल साथ रहेंगे...
क्यूंकि उम्र की गिनती को सच मानना सही नहीं..
बल्कि सच है तो तुम्हारे होठों की मुस्कान..
और इसी मुस्कान पर,
एक लम्हे में मैं सौ साल नहीं,
पूरी सदियाँ जीता हूँ,..
इसलिए तुम्हारा मुस्कुराना जरुरी है...
©राम
Tuesday, 3 November 2015
मेरी अपनी कहानी है...
तुम मेरी तहरीर में शामिल हो
ऐसा सबको लगता है
जबकि मैं सबसे कहता हूँ
ये मेरा अपना हुनर है...
मेरे लिखने में
पहले रात थी
खुशनुमा चाँद
और थोड़ी आवारगी थी
हाँ मानता हूँ कि
अब सब कुछ तुमसे होकर गुजरता है...
मेरी तामीर की नींव में
बस तुम्हारी प्यार की ईंटे हैं..
ऐसा सबको लगता है..
जब की मेरी अपनी ही दुनिया है..
बुलंदी है,
मैं सबसे कहता हूँ..
जहाँ पहले खिड़कियाँ थी
छज्जे थे
धूप थी
और बारिश टपकती थी
हाँ मानता हूँ,
अब तुम बिन सूखा पड़ा, बेजान खंडहर है..
और हाँ,
मेरी बेताबियाँ बस तुमसे है
ऐसा सबको लगता है
जबकि मैं सबसे कहता हूँ
मेरे हालात कुछ भी हो
मैं इंसान बेहतर हूँ..
मेरी अपनी कहानी है...
©राम
Sunday, 1 November 2015
अखबार की तरह...
तुम मेरी आदतों में मुख़्तसर हो
अखबार की तरह...
मैं पढ़ूँ ना पढ़ूँ, बिस्तर पर होना ज़रूरी है...
©राम
शर्मा जी के किस्से...
बहुत दिन बाद याद आये शर्मा जी...
एक बार शर्मा जी को किसी चैट एप्लीकेशन में एक लड़की से बिना देखे प्यार हो गया...
शर्मा जी की लाख मिन्नतों के बाद भी उसने अपनी कोई भी फ़ोटो नहीं दिखायी..पर अपने शर्मा जी बौराये हुए घर से लड़-झगड़कर भागकर उससे मिलने गए..
और जाते हुए माँ से कहा, माँ तेरे लिए बहू लाने जा रहा हूँ...
तभी पिताजी की आवाज़ आयी, जब अपने मन की ही करना है तो ये मेरा घर है, यहाँ वापस कदम मत रखना।
लेकिन यहाँ तो मेरे मित्र शर्मा जी प्रेम में मजनू बने बैठे थे।
उन्होंने पिताजी से कहा, ठीक है अगर आपका यही फैसला है तो यही सही...मैं वापस नहीं आऊँगा।
पर लड़की से मिलने के बाद,उसकी अब्बा झब्बा झब्बा वाली भाषा सुन और उसकी बिकराल महाकाय आकृति देख...शर्मा जी उल्टे पाँव घर की ओर बेहिसाब भागे।
और घर वापस आने की सपीड...घर से बाहर जाने से ज्यादा तेज़ थी।
आते ही पिताजी और माँ के पैरों मैं गिरकर कहा, माँ बाप का प्यार ही सच्चा है बाकी सब झूठ है।
©राम
आज भी शर्मा जी से कभी चाय पर मिलता हूँ तो इसी घटना पर एकाध बार हँस लेता हूँ।
अमरवल्लरी
ना जाने रात भर
किसकी सिसकियाँ सुनी मैंने..
अजीब सा मतलब निकलकर
आ रहा था ,
कि कोई छूटा है
सर्द हवाओं में
नंगा बदन लिए...
आँसू जम गए होंगे
रात भर ठंडी हवा का साथ पाकर..
पर सिसकियाँ नहीं रुकी..
सुबह मालूम हुआ
कोई परदेसी
जिस्म के चीथड़े कर चला गया
और फिर
वापस नहीं आया...
फिर ना जाने कब
फुलवरिया जो गोद में
बच्चा लिए माँ बनती
गाँव की डायन बन गयी
और कुछ अच्छे दिलों ने
उसे पत्थर मारे
कुछ ने जिस्म से कपडे उतारे
और कुछ ने नंगे बदन को देखकर
उसके संग लिपटने के सपने भी देखे
फिर हुआ यूँ
कि वो रक्त रंजित हो
गाँव से दूर एक पीपल के नीचे
जम सी गयी..
खून निकला तो था
पर बह नहीं
सुबह देखा था मैंने रहा था
वो सिकुड़ कर मर गयी थी
ठण्ड के मारे..
मरी बस वो नहीं
उसके पेट का बच्चा भी मरा..
जी हाँ कलुआ ने अपने बेटे को
कल ही बताया
वो जो पीपल गाँव से दूर
जंगल में खड़ा है ..
वहाँ जाना नहीं
एक डायन थी
जिसने घिनौने काम करके
खुद फांसी लगायी थी..
अब उसी पीपल में वास करती है.
उसे बच्चों से नफरत है
देखो वहाँ जाना नहीं..
©राम
एक उपन्यास "अमरवल्लरी"...
चेहरा तेरा..
अरे क्या हुआ
तुम्हारा किरदार है की
तुम्हारी शक्ल से
अब मिलता नहीं है...
खिलता नहीं है..
तेरी आदतें हँसने हँसाने की
तुझे नाराज़ कर बैठी
या फिर यूँ कहूँ
कि किसी ने जबरन
तुम्हे ये काम सौंपा...
चलो अच्छा हुआ
तुमने नहीं
तुम्हारे आंसुओं ने सच कहा...
ज़रा देखना आईने में चेहरा कभी
पहले से भी ज्यादा जच रहा...
©राम
ये फ़ोटो कहीं नेट से मिली..और इन भाई साहब को रुलाने में मेरा कोई योगदान नहीं हैं...।
Wednesday, 28 October 2015
प्रेम...
प्रेम की आकृति
अद्भुत है...
अर्थात उसे पन्ने पर उकेरना
बालपन है..
किन्तु इसकी लालसा
इतनी मनभावन है
कि मंत्रमुग्ध ह्रदय
केवल कमल दिखाता है,
कीचड़ नहीं..
पर फिर जब पाँव
अपने रास्ते से बिमुख हो
कीचड़ में फँस जाते हैं
तब हमें लगता है
प्रेम तो मिथ्या है...
किन्तु प्रेम तो
झील पर पड़ी
सूर्य की मोती सामान अमूल्य किरणें हैं
प्रेम तो सूरज की किरणों पर
तैरती बतख है..
प्रेम उसी पानी में तैरती
मछलियाँ हैं...
किन्तु जब झील
जल के अभाव में
सूखकर अजल हो जाती है
तब मछलियों का
बिलबिलाना भयावह होता है..
यह प्रेम का दूसरा
स्वरुप है
इसलिए
प्रेम सुखद ही नहीं
पीड़ादायी भी है...
इसलिए डूबना और तैरना
दोनों सीखना उचित होगा..
©राम
Tuesday, 27 October 2015
मैं हारा नहीं...
तमाम कोशिशों में
मैं हारा नहीं
बस निरुत्तर था
एक आवरण सा चढ़ गया था
जिह्वा के इर्द गिर्द
तब मैं एक निम्न पत्थर था
जो तुम्हारी ठोकरों से
रक्त रंजित हुआ था
अब संयुक्त प्रेम ही है
जो ह्रदय के रिक्त स्थानों को
मोम से भरेगा
बस कहीं मोम, ह्रदय की उष्णता से
पिघल
नेत्रों की राह
प्रवाहित ना हो जाये
फिर तो प्रेम का दोषमुक्त होना
असंभव है...
इसलिए भी निरुत्तर हूँ..
किंतु शब्दों को व्यर्थ कर
तुमको प्रेम समझाना भी
मेरा औचित्य नहीं..
अपितु ये दर्शाना है कि
प्रेम में जो बन सका
वो सब किया
इसलिए अब ऋणमुक्त हूँ
तुमसे और तुम्हारे प्रेम के ऋण से..
अब मैं भिक्षुक नहीं...
और हाँ ऋणमुक्त होना एक सुखद अनुभव है,
ये मैं जानता हूँ।
©राम
Sunday, 11 October 2015
Saturday, 10 October 2015
Friday, 9 October 2015
मुझसे सब ने झूठ बोला...
किसी रोज़ तू मिले तो देखूँ
कि सच में तू वैसा ही है
जैसा मुझे सबने बताया था...
फिर जब मिला तो लगा
जैसे कोई धुआँ सा था
ना पकड़ सकूँ
ना गले लगकर रो सकूँ
और ना ही कंधे पर सर रखकर
कुछ बातें कर सकूँ..
मैं मायूस हुआ
ये देखकर कि तेरा कोई आकार नहीं
'ईश्वर'...
फिर मैं तो यूँ ही फंसा रहा
ज़िन्दगी के कई साल
इसी उलझन में ..
मुझसे सब ने झूठ बोला..
©राम
Thursday, 8 October 2015
Wednesday, 7 October 2015
Tuesday, 6 October 2015
Monday, 5 October 2015
Sunday, 4 October 2015
देखना खुदा ना बने...
दिल की उतनी ही सुनना
की खुद को बुरा न लगे
ये जिस्म का छोटा सा हिस्सा है
देखना खुदा ना बने...
©राम
Friday, 2 October 2015
Sunday, 27 September 2015
कभी आओ मिलने के बहाने...
इस ऊँचाई से
मुझे ये फर्क लगता है
कि तुम खोये नहीं
बस दूर हो...
कभी आओ
जो मिलने के बहाने
तुम्हे मैं पंख दिखलाऊँ
की कैसे उड़ रहे हैं
आसमाँ में ये परिंदे...
की कैसे तितलियाँ
फूलों के संग इठला रही हैं...
तुम्हे ये भी दिखाऊँ
वो नदी जो बिन थके
बहती रही है
जो हमको बाँटती है
असल में रास्ता है
जो तुमसे होकर गुजरता है...
अभी गुमसुम अकेला हूँ
तो ये सब सोचता हूँ...
जो तुम आ जाओगे
तो फिर हम बातें करेँगे...
हवा का साथ पाकर
यूँ ही कहीं उड़ते फिरेंगे...
©राम
blogspot_merikalam
Saturday, 26 September 2015
Friday, 25 September 2015
Thursday, 24 September 2015
Tuesday, 22 September 2015
मेरी कलम का जादू...
................................................
काश मैं एक लेखक के साथ-साथ एक जादूगर भी होता,
तो मेरी कलम से ना जाने मैं कैसे-कैसे करतब दिखाता।।।
सबसे पहले तो मैं अपनी कलम से उस नन्ही लड़की का छोटा कमरा, जहाँ वो पैरों को मोड़कर सोती है उसे थोडा बड़ा कर देता, ताकि वो पैरों को फैलाकर सुकून से सो सके।
नहर पर पुल ना होने की वजह से नन्हे राजू को हर रोज स्कूल जाने में देरी होती है, मैं उसी नहर पर अपनी कलम से एक छोटा पुल बना देता और राजू दौड़ते हुए पुल पार कर जाता।।
मीलों तपती धुप में सर पर पानी का मटका लिए पानी की तलाश करने वाली औरतों के लिए अपनी कलम से उनके घर के पास ही एक तालाब बना देता..
जहाँ वो बिना थके मुस्कुराते हुए पानी भरती..।।
मुसाफिर को उसकी मंजिल से अगर मिला नहीं पात़ा तो क्या??
अपनी कलम से उसके लिए रास्ते में एक अमलताश का पेड़ बना देता जो उसे छाँव और कुछ पल का आराम देता।।
ठिठुरती ठण्ड में फुटपाथ पर सोने वालों की चद्दर अपनी कलम से थोड़ी और बड़ी कर देता ताकी उनके पैर चद्दर से बाहर ना निकलते और उनकी नींद ना टूटती।।
काश मैं एक लेखक के साथ-साथ एक जादूगर भी होता,
तो मेरी कलम से ना जाने मैं कैसे-कैसे करतब दिखाता..
पर इस काश और वास्तविकता के बीच का अंतर देखकर मन को दुःख होता है,और शायद इसी उलझन में मेरी और मेरी कलम की अनबन रात भर चलती है,पर यथार्थ तो यह है की मैं केवल एक अदना सा लेखक हूँ, कोई जादूगर नहीं।।
😔😔😔😔😔😔😔😔😔
-राम त्रिपाठी
Tuesday, 15 September 2015
मेरी मान हवा बन जा...
मैं फूँक दूँ तू उड़ जा..
ऐ दिल मेरी मान हवा बन जा...
अच्छा बनना तेरी फितरत नहीं
पर इतना तो कर,
पहले ज़ख्म था ना,अब दवा बन जा...
मेरी मान हवा बन जा...
रफ्ता रफ्ता उम्र गुज़री
जिस्म बूढ़ा हुआ ..
ले उम्र की गोली खा, फिर जवाँ बन जा
मेरी मान हवा बन जा...
©राम
Wednesday, 9 September 2015
Tuesday, 8 September 2015
इंतज़ार...
किसी के रोते रोते
सो जाने का
सच यही है...
कि वो टूटा ज़रूर है...
पर ज़िंदगी की
तोहमतों ने उसे भरसक थकाया भी है...
फिर किसी को लगा
दीवारों में कैद होकर
रोना तो कमजोरी है...
हाँ तो उसे लगता है
कि तकिया और बिस्तर
उसके साथ रो रोकर
झील बन जाएँगे,
इसलिए भी रोता है...
पर फिर उसी झील में
कोई कमल मुस्कुराता हुआ खिले
उससे पहले एक आइना है
जो बड़ी अजीब सी हँसी हँसता है...
वो शायद इसलिए भी
कि जिस शख्स को बरसों पहले
मैंने इसी आईने में
कैद कर दिया था...
वो बाहर निकल कर
ये बताना चाहता है
कि ज़िन्दगी सुबह और शाम
की जद्दोजहद से बढ़कर
एक काफिला है..
जो ख़ानाबदोश सपने लिए
हर वक़्त घूमती है...
तब फिर ये अंत कैसे
और,
और जो सिसकियों की
टीस महसूस करे वो अभी मिला कहाँ???
जो ये ना पूछे की रोये क्यूँ??
बल्कि उसी तकिये और बिस्तर वाली
झील में तैरकर
तुम्हे किनारे तक लाए...
इसलिए इंतज़ार...
और इंतज़ार ही
एक दिन मरहम बनेगा
हर एक ज़ख्म का...
©राम
Saturday, 5 September 2015
Wednesday, 2 September 2015
मैं अँधेरा हूँ, मुझमें रात बहुत है...
नज़र सबर इश्क़ एहसास बहुत है,
मैं अँधेरा हूँ मुझमें रात बहुत है...
सूखी है दिल की ज़मीं पर मरूँगा नहीं
अभी उम्मीद-ए-अब्र में बरसात बहुत है...
तुम्हे पाना था अपने हुनर पर, माँगना कैसा,
मांगते तो शहर में खैरात बहुत है...
(उम्मीद-ए-अब्र: उम्मीद का बादल)
©राम
Monday, 31 August 2015
अपनी दोस्ती खास निकलेगी...
जिस ज़मीन पर तेरी बुलंदी खड़ी है
मैं खोदूँगा तो यहाँ कई लाश निकलेगी ..
तेरे जिस्म की खुशबू यहाँ से हवा ले जाएगी
इस ऊँचाई से नीचे देख तेरी साँस निकलेगी...
मैं रहूँगा पर तुझे बचाऊँगा नहीं, मर जाऊँगा
तू गलत सही पर अपनी दोस्ती ख़ास निकलेगी...
©राम
Saturday, 29 August 2015
Friday, 28 August 2015
बस सबर करता है...
वो तेरा मुस्कुराना
किसी और की मुस्कराहट पर
दिल जलाता है,
मैं दिखाता कुछ नहीं
पर सच कहूँ तो असर करता है..
दिल जब भी तेरे कूचे में
सफ़र करता है..
बोलता कुछ नहीं
बस सबर करता है...
©राम
Wednesday, 26 August 2015
Wednesday, 19 August 2015
मेरे दिल का ख़याल भी चौराहे जैसा..
एक तरफ दोस्ती की
रंगीन बातें
जहाँ हँसी की फुहारों के बीच
पारले जी कब टूटकर
चाय में गिर जाता है
पता नहीं चलता..
और एक तरफ
इक-तरफा इश्क़
जहाँ बेबस मैं..
चिल्ला चिल्लाकर
उसे बता रहा हूँ
कि मैं उससे अनवरत प्यार करता हूँ
और वो शहर के कुछ परेशान लोगों की
भीड़ में खड़ी
बस मुझे अनजान सी देख रही है..
एक तरफ खाली रास्ता
जहाँ बस हवा जाती है
किसी के पैरों के निशान को
ज़मीन से मिटाने
ताकी पता ना चले की
इस राह कोई आया भी था..
मैं भी देखता हूँ
बड़े गौर से
पर उस राह कभी गया नहीं...
और इक ख़याल यूँ ही
जहाँ ऊपर के तीनो ख़याल मिलते हैं..
जहाँ बस खुशियाँ हैं..
वो जो रास्ता खाली पड़ा है
उसी पर कुछ उम्मीद की कुर्सियाँ लगी हैं
जहाँ चार दोस्तों की गपशप
और चाय की चुस्कियाँ हैं..
और फिर तुम भी गुज़रती हो
बिना किसी भीड़ के
मैं तुम्हे देखता हूँ अपलक
और तुम मुस्कुराकर
इस प्यार को दो-तरफा होने का
एहसास दिलाती हो..
मेरे खयाल में कुछ ऐसे ही चार खयाल है..
इसलिए कहता हूँ
मेरे दिल का खयाल भी है
चौराहे जैसा...
जहाँ लोग आते हैं
रुकते हैं
चले जाते हैं...
और रह जाता है
तो बस एक खयाल...
©राम
Monday, 17 August 2015
कलम..
मैं लिखता हूँ, ज़माना हँसता है,
मेरा हर एक हर्फ़ उनको बेकार लगता है..
कुछ हुनर दे इन हाथों को ऐ खुदा,
कि जब लिखूँ दिल कुरेद दूँ..
वरना वो कलम दे जिससे गुलज़ार लिखता है...
©राम
गुलज़ार साहब को मेरी ओर से जन्मदिन की ढेरों शुभकामनायें...।
Sunday, 16 August 2015
Monday, 10 August 2015
Thursday, 6 August 2015
Tuesday, 4 August 2015
ऐश ट्रे...
एक कश खींचू तो
चाय धुआँ धुआँ सी
और लूँ जब एक चुस्की
तो सिगरेट खफा खफा सी..
इक रात जो तुम टहरी थी
मैं भूल गया
कि मेरे बिस्तर के ठीक दाहिने तरफ
ऐश ट्रे में अपने वज़ूद को खोजते
पड़ी थी एक अधजली सिगरेट ..
और गुस्से में लाल और लाल से
काली हुई चाय...
यकीनन..
तुम
चाय
और सिगरेट
तीनों होठों से लगते हो
जलते हो
अच्छे लगते हो...
©राम
#आखिरी_कश_तक_खीचूँगा_ज़िन्दगी
Monday, 3 August 2015
संघर्ष कर...
ये वक़्त सोचने का नहीं है,
कुछ करने का है..
बिना पंखों के
आसमान में उड़ने का है..
बस आज...
अगर आज नहीं
तो फिर कभी नहीं...
दुश्मन कितना भी बड़ा हो
डरना मत...
संघर्ष कर...
हज़ारों मुश्किले हैं
पर एक पहाड़ की तरह
अगर डट कर खड़ा नहीं हुआ
तो कोई नदी बहा ले जायेगी
अपने साथ..
और सब ये कहेंगे
कि कोई पहाड़ हुआ करता था यहाँ
कुछ दिनों पहले
यहाँ कल ये कोई नहीं पूछेगा
कि तूने क्या किया..
कैसे किया...
इसलिए अपनी नाकामी को तोड़
हवा की तरह आगे बढ़..
मंज़िल और तुझमें
एक रात का अंतर है..
कल की सुबह
जीत का सूरज लाएगी...
इसलिए लड़ और संघर्ष कर...
©राम
Friday, 31 July 2015
ईंट और सीमेंट...
ये ईंट और सीमेंट का प्यार
ही तो है..
जिसने जोड़े रखा दीवार को
और हम मुस्कुरा रहे थे
की घर हमने बनाया...
©राम
जो दिल का ख़ास है...
मेरे अपने
मेरे सपने
वो टूटा आइना
दर ओ दीवार पर
लटके हुए एहसास हैं...
तू मुझसे दूर है
मज़बूर है
और नाराज़ है,
पर तेरी हँसती हुई तस्वीर
मेरे पास है...
तेरा वादा
ये दिल आधा
मोहब्बत पूरी सी
समझने में भला किसका
पर फिर भी आस है...
अकेली रात
अँधेरा साथ
समंदर शोर गुल
कोई आये मैं हँस तो दूँ
जो दिल का ख़ास है...
©राम
Wednesday, 29 July 2015
तुम्हारी प्यार की सर्दी में...
तुम्हारी प्यार की सर्दी में,
कुछ यादें हैं जो ओस की बूँद बनकर..
मेरी पुरानी डायरी के कुछ पन्नो को गीला कर गयी..
अब ओस गिरने से शब्द बिल्कुल तुम्हारी कमर की तरह मोटे हो गए हैं
तुम्हारी कमर से याद आया
तुम आइने में खुद की कमर
काफी देर तक देखती रहती थी,
और मेरी तरफ देखते हुए
नाक सिकोड़ती थी
फिर मैं मेरी कविताओं में तुम्हारी कमर को,
बिल्कुल उतना ही लिखता था
जितना तुम्हे अच्छा लगता था..
मुझे तो लगता था
कि मेरी कलम से निकले
हर एक शब्द का उद्देश्य तुम्हे खुश करना था..
सच कहूँ तो मुझे अच्छा भी लगता था,
पर भीगने की वजह से कुछ शब्द दिखाय़ी नहीं दे रहे
ये भी नहीं दिख रहा
कि पिछले दिसंबर में जब हम मिले थे
तो मैंने तुम्हे गुलाबी स्वेटर में देखा था
तो क्या लिखा था...
फिलहाल तो मैं पन्ने पर गिरी
ओस की बूँद के सूखने का इंतज़ार कर रहा हूँ..
-राम त्रिपाठी
Tuesday, 28 July 2015
Sunday, 26 July 2015
Saturday, 25 July 2015
Thursday, 23 July 2015
Wednesday, 22 July 2015
हुई मुद्दत कोई आया नहीं...
ये जो खंडहर है मेरे अंदर
जो टूटी खिड़कियाँ
और जो जाले लग गए
दिल-ओ-दीवार पर
ऐसे ही नहीं है, वक़्त लगा
शब्द शब्द बिखरना पड़ा
फिर लगा कोई अपना नहीं
और कोई साया नहीं
कुछ मुफलिसी थी जेब की भी
कुछ अकेलापन भी था
उस वक़्त कोई अपनाया नहीं
हुई मुद्दत कोई आया नहीं...
©राम