Monday, 29 September 2014

इस लेख का कोई शीर्षक नहीं...

आज रास्ते पर काफी दूर तलक गरीबी देखी तो जहन में दबाये उसे घर उठा लाया ।
नहीं, नहीं....घर के किसी कोने में नहीं फेका बल्कि संभालकर रख दिया अलमारी में...
एक अधजली सी रोटी, एक फटी पुरानी चद्दर, कुछ धुप और एक कार से फेका हुआ बिस्कुट का पैकेट जिसे वही कुछ बच्चे एक दूसरे से छीन रहे थें।।
इतना कुछ उठा लाया और सोचा की कभी इत्मिनान से बैठूँगा तो कुछ लिखूंगा इसी पर।।।

लेकिन फिर दिमाग में एक सवाल खुद को ही कोसने लगा की क्या मैं इतना गिरा हुआ हूँ या मेरी लिखने की शक्ति इतनी कमजोर है की किसी की जली हुई रोटी चुराकर अपना पेट भरूँ???
ये लेखन नहीं होगा यह एक चोरी होगी जिससे यह साबित होगा की मुझमें लिखने की कला नहीं है बल्की मैं रास्ते से लोगों की लाचारी चुराकर उसे पन्नों पर कुरेद-कुरेद कर लिखता हूँ..और उसे बेचकर अपना पेट भरता हूँ।।।
इस सोच ने मुझे अन्दर से झकझोर दिया और मैंने झट से अलमारी खोली...उठा लिया वो सब कुछ जो मैंने रास्ते से उठाया था और निकल पड़ा हूँ उसी रास्ते पर उसे वापस रखने...
इस बार उनकी हँसी चुराकर लाने की कोशिश करूँगा..

-राम त्रिपाठी

नोट: और हाँ इस लेख से मैं किसी लेखक या व्यक्ति विशेष पर कटाक्ष नहीं कर रहा हूँ...

Thursday, 25 September 2014

"लड्डू-जूजू" कहानी के पन्नों का एक अंश...

आज जब हमारी नफरत फिर सामने आयी ..
जब हम दोनों का दिल फिर नाराज़ हुआ
तो दिल की नमी को गुस्से में दबाते हुए मैं निकल तो आया वहाँ से,
लेकिन तुझे भूला नहीं मैं।।

वहाँ से निकलकर समंदर किनारे कुछ देर बैठा,
कुछ देर तक लहरों से खुद के पैरों को बचाया भी..
सूरज को ढलते देखा, लेकिन तुझे भूला नहीं मैं।।

अब कश्मकश यही है की यु-टर्न लूँ जो तुम्हारे पास लेकर जायेगा
या फिर सीधा रास्ता जो तुमसे दूर...
फिलहाल दिल के चौराहे पर खड़ा मैं सिग्नल ग्रीन होने का इंतज़ार कर रहा हूँ...

-राम त्रिपाठी

Tuesday, 23 September 2014

बरसात...

आज ऐसे ही ऑफिस से आने के बाद पता नहीं क्यूँ लगा जैसे बाहर बड़ी ज़ोर की बरसात हो रही है..मैंने खिड़की से पर्दा हटाया तो देखा बारिश की एक बूँद भी नहीं थी।। तब मुझे महसूस हुआ शायद मैं मेरे काम में इतना व्यस्त था की इस बार की बारिश का मज़ा ही नहीं ले पाया और शायद इसीलिए आज बरसात मुझसे छुप्पन छुपायी खेल रही है, इसलिए कुछ लिखने का मन किया सो लिख दिया और बिना बरसात के भीग गया...
कविता का शीर्षक है- बरसात।।

जग में जीना या मर जाना..
अब दिल की खातिर कुछ कर जाना..
उठ जाओ कब तक सोना है..
ए नींद सुनो, फिर ना आना।।
सूखे पन्नों पर बूँद गिरी तो तेरा नाम उभर आया..
तेरी हिम्मत बनने की खातिर ले दिल कुछ दूर चला आया।।
ये सूखे नैनों की प्यास बुझाती है..
धरती और अम्बर का मिलन दिखाती है..
बरसात ही ऐसी है तेरी याद दिलाती है।।

जाने ये कैसा है बंधन..आ देख मेरा एकाकीपन..
संसार का हम क्यूँ सोचे फिर..
तू है मैं तेरा हूँ दरपन..
नाता जो छूटेगा..बंधन भी टूटेगा..
फिर बरसात कहाँ होगी..आकाश भी रूठेगा..
ये प्यार जगाती है, रूठे को मनाती है..
बरसात ही ऐसी है तेरी याद दिलाती है।।

-राम त्रिपाठी

Thursday, 18 September 2014

तुम नहीं तो अब तुम्हारी ख़ामोशी चिल्लाकर बातें करती है,
मैं अक्सर उसे कहता हूँ मेरे सामने ऊँची आवाज़ में बातें मत करना,
पर क्या करें ख़ामोशी भी तो तुम्हारी ही  है,
फिर बर्ताव भी तो तुम्हारी ही तरह करेगी।
मैं अक्सर अपने कानों को दोनों हाथों से दबाकर सोचता हूँ की उसकी कर्कश आवाज़ मेरे कानों में ना पड़े,
लेकिन फिर देखता हूँ तो वो अपना मुँह सिकोड़े मेरी आँखों के सामने आ जाती है बिलकुल तुम्हारी तरह, अब तीसरा हाथ कहाँ से लाऊँ, आँखें कैसे ढक लूँ???
इसलिए अपने बिस्तर पर कानों को दबाये उल्टा लेट जाता हूँ ताकी कुछ ना दिखे।
लेकिन तुम्हारी ख़ामोशी है की नन्हे बच्चे की तरह हट बनाये बैठी है,कई बार मेरी पीठ पर हाथ थपथपाती है, कई बार तो तुम्हारी तरह मेरे बालों में हाथ भी फेरती है, मुझे बहलाती है, फुसलाती है।
कभी उस पर खुश होता हूँ तो कभी ऐसे नाराज़ होता हूँ की उसके गालों पर थप्पड़ मारने को दिल करता है।
खैर ये कश्मोकश कई दिनों से चल रही है,
पर तकिये में आँखों को दबाये मैं मेरे दिल से पूंछता हूँ की तुझे क्या चाहिए???
वो कहता है की,
तुम होती तो बेहतर होता।।

-राम त्रिपाठी

Monday, 15 September 2014

काश्मीर...जन्नत या जहन्नुम ???



                       

दोस्तों कुछ सालों पहले ऐसे ही रास्ते पर एक युवक ने मुझे पीछे से आवाज़ दी..मैंने घूमकर देखा तो यही कोई 35 के आसपास रहा होगा। कंधे पर एक फटा पुराना बस्ता लिए एक हाथ से अपनी बेटी को पकडे हुए और बिलकुल बगल में उसकी पत्नी भी खड़ी थी, खैर ये मेरा अंदाज़ा था, पर उनकी वेश-भूषा देखकर ऐसा लगा जैसे उनको मैंने पुणे में पहली बार देखा।
जी बोलिए...मैंने उनको गौर से देखते हुए कहा।
जी हम लोग बड़ी दूर से आये हैं और कई दिनों से ठीक से खाना तक नहीं मिला।
एक बार तो मैंने यह सोचा की मांगने वाले भी ना जाने कितने तरीके अपनाते हैं, लोगों से पैसे निकलवाने के लिए बीवी बच्चे तक बना लेते हैं लेकिन एक लेखक होने के नाते बातों को थोड़ी लम्बी खीचना शायद आदत बन गयी थी, हर दिल और दिमाग बस यही सोचता की काश कोई कहानी या कविता ही निकल आये।
कितनी दूर से आये हो और ये तुम्हारी पत्नी और बेटी है क्या???..मैंने आसपास के लोगों को देखते हुए मजाक करते हुए पुछा।
उस युवक ने कहा, "जी मैं काश्मीर से आया हूँ और हाँ ये मेरी पत्नी और बेटी है"।
मैंने फिर से हँसते हुए कहा,"अरे भाई, पैसे चाहिए तो ऐसे ही मांग लो उसके लिए इतनी मसक्कत करने की क्या जरुरत..और क्या भिखारियों का स्कोप काश्मीर में कम हो रहा है क्या???"
साब, मैं अपनी बेटी की कसम खाकर कह रहा हूँ..उसने झट से अपनी बेटी के सिर पर हाथ रखकर कहा।।
मुझे बात कुछ अजीब सी लगी और पता नहीं क्यूँ ये सब कहते हुए मुझे उसके चेहरे में सच्चाई नज़र आ रही थी।
मेरी नज़र उसकी बच्ची की तरफ गयी और वो घबराकर अपनी माँ के पीछे छिप गयी, तब मुझे यकीन हुआ की अगर ये बच्ची भीख मांगती होती तो शायद डर कर पीछे नहीं छिपती।। मैं उस बच्ची को देखने की कोशिश कर रहा था की तभी उसके पिता की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी।
साब, अगर हमको कुछ नहीं दे सकते तो कोई बात नहीं, पर मेरी बच्ची ने सचमुच कुछ भी नहीं खाया अगर उसे कुछ दे सके तो मेहरबानी।।
मेरी नज़र फिर उस बच्ची की डरी हुई नज़र ढूँढ रही थी।
बीच-बीच में उसकी पत्नी भी उसे पूरी मदद कर रही थी मुझे मनाने में, लेकिन उसे देखकर अब धीरे-धीरे समझ आ रहा था की वो दोनों इस काम में नए हैं।
फिर भी लेखक दिल है पिघलने में वक़्त नहीं लगता, पैसे कम थे पर शायद उनका पेट भर सकता था। उन्हें पास के एक होटल में ले गया और उनसे पुछा क्या खायेंगे?? वो आपस में एक-दुसरे को देखने लगे।
फिर मुझे ही लगा की मैं भी कितना मुर्ख हूँ प्यासे से पूछ रहा हूँ की क्या पियोगे।।
मैंने झट से कुछ रोटियों और दाल का आर्डर दिया और खुद के लिए एक चाय बोली, जाहिर सी बात है की अगर इतना खर्चा कर रहा हूँ तो कुछ उसके बदले लूँगा ही, कुछ नहीं तो एक कहानी ही सही।
खाना जैसे ही टेबल पर रखा मुझे लगा छोटी बच्ची झट से रोटी उठा लेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वो अभी भी डरी हुई थी। फिर किसी तरह उसकी माँ ने उसे खिलाना शुरू किया।
मैंने ऐसे ही मेरी कहानी का अंत जानने के लिए उनसे पूछ लिया, ऐसा क्या हुआ जो आपको यहाँ इतनी दूर पुणे में आने की जरुरत पड़ी और दर दर की ठोकरे खाने लगे।
मैं कश्मीरी पंडित हूँ और कई सालों से मैं वहाँ रह रहा था, मेरे पिताजी वही एक स्कूल में प्रिंसिपल थे, मैं भी उसी स्कूल में पिताजी के साथ पढाने लगा, मैंने हिन्दी में MA किया है।
इतना सुनते ही मेरी तो आँखें खुली की खुली रह गयी, आप एक अध्यापक हैं??? और पता नहीं कैसे मैं, तुम से आप पर आ गया।
जी हाँ। मैं एक अध्यापक हूँ और मैं हिन्दी पढाता था।उसने एक छोटा सा रोटी का टुकड़ा अपनी बच्ची के मुँह में डालते हुए कहा।
फिर बात यहाँ तक कैसे पहुँची???
पता नहीं क्या हुआ। बच्चों को अहिंसा का पाठ पढ़ाते-पढ़ाते मैं कब हिंसा का शिकार हो गया समझा ही नहीं। एक ऐसा दस्ता था जिसे नफरत थी काश्मीरी पंडितों से, मैंने भरसक कोशिश की लोगों को समझाने की, लेकिन वो ना जाने किस प्रतिशोध में जल रहे थे। बस उनके मुँह से एक ही नारा सुनायी दे रहा था, "तुम सब काश्मीर से चले जाओ, हम एक नया काश्मीर बनायेंगे, आज़ाद काश्मीर"
जबरन उन्होंने हमारे घरों पर कब्ज़ा कर लिया और कर दिया हमें बेघर, मैंने और मेरी तरह कई काश्मीरी पंडित इस बात का विरोध कर रहे थे, लेकिन कब तक?? उस भीड़ का प्रतिशोध इतना गहरा था की हमें हारना पड़ा।
फिर??? मैंने बड़े धीरे से कहा।
फिर क्या...निकल पड़े एक अंजान शहर की ओर कंधे पर उम्मीद का बस्ता लिए। रस्ते में जो भी गाड़िया मिली बैठ गया और ना जाने कब इस शहर में आ गया। जब तक कुछ पैसे बचे थे तो एक वक़्त का खाना मिल जाता था लेकिन दिन ब दिन ज़िन्दगी महँगी होती जा रही है।
पर मैंने तो सुना है की अगर धरती पर कही स्वर्ग है तो वो काश्मीर में है।
शायद सही सुना है अगर 2-4 दिन छुट्टियाँ मनाने जा रहे हो ,
पर अगर वही रहना है तब सच्चाई कुछ और है।
कैसी सच्चाई??? मैंने झट से पुछा।
यही की, कोई भी जगह तब सुन्दर बनती है, जब वहाँ रहने वाले लोगों में प्यार, मोहब्बत हो पर वहाँ तो नफरत पल रही है।
उनकी रोटियाँ ख़तम हो रही थी, मैंने पूछा और चाहिए???
नहीं साब बस हो गया। आपसे जितनी उम्मीद थी उससे ज्यादा मिला। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
मैंने बच्ची के सिर पर हाथ घुमाया और पास की ही दूकान से एक टॉफी खरीद कर दी।
अंकल को थैंक यू बोलो।
बच्ची ने धीरे से मुझे थैंक यू कहा। मैंने पूछा अब कहा जायेंगे आप लोग??? चलिए मेरे साथ कुछ दिनों के लिए।। मैंने कह तो दिया पर मेरी औकात तीन लोगो को पालने की नहीं थी मैं जानता था।
मुझे अपने घर में जगह देंगे तो मेरे जैसे डेढ़ लाख लोग हैं उनको भी रखना पड़ेगा। उस आदमी ने हँसते हुए कहा।
डेढ़ लाख?? क्या मतलब??
मैं ही थोड़ी अपने शहर अपने घर से निकाला गया मेरे जैसे लाखों हैं, कुछ इस शहर में तो कुछ किसी और शहर में। ऐसे ही लोगों से मदद मांगते हुए, जैसे मैंने आपसे मांगी पर शायद सब आप जैसे नहीं होते। बस आपसे एक दरख्वास्त है की अगर मेरे जैसा कोई और आपको मिले तो तो कुछ ऐसा करना जिससे उन्हें ये लगे की पुणे, काश्मिर जैसा बाहरी सुन्दर नहीं बल्कि अन्दर से भी सुन्दर है, यहाँ लोगों में बहुत प्यार है।
खैर आपसे मिलकर अच्छा लगा। सफ़र लम्बा है, जाना बहुत दूर है। फिर मिलेंगे।
पर जाते जाते उस आदमी की एक ही बात ध्यान में रही, उसने कहा था की वैसे मेरे साथ और कई लोग जब वहाँ से निकाले जा रहे थे, तो ना जाने उसमें से कितने चेहरे काश्मीर को कोस रहे थे की आग लगे ऐसे शहर को...भगवान सब देख रहा है। देख लेना एक दिन ये शहर जिसे लोग जन्नत कहतें हैं जहन्नुम बन जायेगा। खैर मैं ऐसा नहीं चाहता, मैं मेरे शहर और मेरे घर में एक बार वापस बेख़ौफ़ लौटना चाहता हूँ।
मैं देखता रहा उनकी तरफ और वो चेहरे मेरी आँखों से ओझल हो गए और मेरे साथ रह गयी एक दर्द और डर की कहानी।
दर्द एक बाप का और डर उस बच्ची का।
दोस्तों मैंने ये कहानी लिखी और यकीन मानिये किसी को नहीं पढायी। बस कभी-कभी उस बच्ची की याद आती थी तो कहानी के कुछ पन्नों को पलट लेता था।
पर आज इतने अरसे बाद काश्मीर की खस्ता हालत न्यूज़ चैनेल पर देखी तो उस आदमी के वो शब्द मेरे कानों में गूंजने लगे जब उसने कहा था की कई लोग काश्मीर को कोस रहे थे, कुछ तो यह भी कह रहे थे की देख लेना जिस शहर को लोग जन्नत कहते हैं, जहन्नुम बन जाएगा।

उन लोगों की हाय लगने से काश्मीर की ये हालत हुई ??? मेरा दिल तो इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं पर शायद दिमाग उन लाखों कश्मीरी पंडितों की हालत देखकर कुछ सोच जरुर रहा है की कहीं उसी वजह से काश्मीर आज ये तबाही भुगत रहा है।।
आपको क्या लगता है???

-राम त्रिपाठी

Sunday, 14 September 2014

हिंदी...मेरी जीवन संगिनी।।

मेरा वेश मेरा क्लेश,
मेरी शक्ति मेरी भक्ति।
मेरा प्रेम मेरा धर्म,
मेरा स्नेह मेरा कर्म।
मेरी जलन मेरा गगन,
मेरा अस्तित्व मेरा मन।
मेरी शैली मेरा अभिमान,
मेरा सत्य मेरा सम्मान।
मेरी हँसी मेरा क्रोध,
मेरा धर्य मेरी शोध।
मेरा प्रतिकार मेरा परिवर्तन,
मेरा विरोध मेरा परावर्तन।
सब हिन्दी से है, मैं हिन्दी की उपज हूँ।
इसलिए ना जाने कितनी बार कहता हूँ,
मैं नहीं, मेरी हिन्दी सुन्दर है।

हिन्दी दिवस पर अनेकों बधाईयाँ। थोड़ी देरी से आया लेकिन दुरुस्त आया।

Tuesday, 9 September 2014

इस शहर से उम्मीद बहुत है...

छत पर आँखों को मसलते हुए जब उन्हें खोला तो देखा नीला आसमान बिलकुल सर पर था, उस रोज बरसात भी नहीं थी, लगा जैसे मानो आसमान को यूँ हाथ उठाया तो छू लूँगा...
फिर तो हर सुबह कुछ ऐसा होने लगा,
आसमान और पास..और पास होने लगा।।
फिर कुछ अरसे बाद जब आज आँख खुली तो देखा की, छत की सीलिंग पर एक अधमरा सा पंखा लटका हुआ है..धीरे-धीरे कछुए की चाल की तरह घूम रहा है। मन व्याकुल होकर वही नीला आसमान ढूँढने लगा।
एक बार तो ऐसा लगा जैसे मैं कोई सपना देख रहा हूँ पर फिर पिताजी के चिल्लाने की आवाजें जहन में आ रही थी और यह भी याद आ रहा था की कैसे मैंने कंधे पर बैग को लटकाया और माँ को भरोसा दिलाया की शहर जा रहा हूँ...
कुछ बनूँगा तभी वापस आऊंगा ।
मैं झट से उठा और खिड़की से बाहर देखा...आप सोच रहे होंगे क्या दिखा???
वही भीड़...हजारों चेहरे ...
वही शहर जिसके बारे में बचपन से सुना है की,
यहाँ या तो कोई कुछ बन जाता है,
या फिर बिखर जाता है।
मैं भी आ गया, कन्धों पर उम्मीद का बस्ता उठाये, खैर मेरी परेशानी बताना मेरी आदत नहीं और ना ही मैं मेरे गाँव और इस अंजान शहर में कोई बड़ा अंतर बताऊँगा।। बस कुछ फर्क लगा तो यही की, वहाँ मैं और खुला आसमान था, पर यहाँ मेरे और आसमान के बीच में मेरे कमरे की छत है।
जद्दो-जहद बस इतनी है की, कब मेरी हसरतें इस छत को चीरती हुई आसमान तक पहुँच जाये और मैं फिर वही नीला आसमान देख सकूँ।।
फिलहाल ज़िन्दगी की अदालत में नाकामी की दलीले मेरे सपनो पर भारी है,
पर कोशिश जारी है।।।

-राम त्रिपाठी

इस शहर से उम्मीद बहुत है...

छत पर आँखों को मसलते हुए जब उन्हें खोला तो देखा नीला आसमान बिलकुल सर पर था, उस रोज बरसात भी नहीं थी, लगा जैसे मानो आसमान को यूँ हाथ उठाया तो छू लूँगा...
फिर तो हर सुबह कुछ ऐसा होने लगा,
आसमान और पास..और पास होने लगा।।
फिर कुछ अरसे बाद जब आज आँख खुली तो देखा की, छत की सीलिंग पर एक अधमरा सा पंखा लटका हुआ है..धीरे-धीरे कछुए की चाल की तरह घूम रहा है। मन व्याकुल होकर वही नीला आसमान ढूँढने लगा।
एक बार तो ऐसा लगा जैसे मैं कोई सपना देख रहा हूँ पर फिर पिताजी के चिल्लाने की आवाजें जहन में आ रही थी और यह भी याद आ रहा था की कैसे मैंने कंधे पर बैग को लटकाया और माँ को भरोसा दिलाया की शहर जा रहा हूँ...
कुछ बनूँगा तभी वापस आऊंगा ।
मैं झट से उठा और खिड़की से बाहर देखा...आप सोच रहे होंगे क्या दिखा???
वही भीड़...हजारों चेहरे ...
वही शहर जिसके बारे में बचपन से सुना है की,
यहाँ या तो कोई कुछ बन जाता है,
या फिर बिखर जाता है।
मैं भी आ गया, कन्धों पर उम्मीद का बस्ता उठाये, खैर मेरी परेशानी बताना मेरी आदत नहीं और ना ही मैं मेरे गाँव और इस अंजान शहर में कोई बड़ा अंतर बताऊँगा।। बस कुछ फर्क लगा तो यही की, वहाँ मैं और खुला आसमान था, पर यहाँ मेरे और आसमान के बीच में मेरे कमरे की छत है।
जद्दो-जहद बस इतनी है की, कब मेरी हसरतें इस छत को चीरती हुई आसमान तक पहुँच जाये और मैं फिर वही नीला आसमान देख सकूँ।।
फिलहाल ज़िन्दगी की अदालत में नाकामी की दलीले मेरे सपनो पर भारी है,
पर कोशिश जारी है।।।

-राम त्रिपाठी