Thursday, 30 May 2019

बहिणाबाई चौधरी - साहित्य जगत का एक अविस्मरणीय नाम

लिखने की मेरी परिकल्पना मुझे इसलिए भी भाती है कि इसकी खोज में मैं ना जाने कहां से कहां पहुंच जाता हूं।

कभी दुनिया के दूसरे छोर में किसी अंग्रेजी के माहिर कथाकार को पढ़ने लगता हूं तो कभी गांव की पगडंडियों पर पैरों को संभालते गेहूं की बालियों में जा निकलता हूं।

आज कुछ ऐसा ही हुआ , वैसे तो इंटरनेट के इस विशाल सागर में अच्छा और बुरा सब मिलता है लेकिन इसकी एक विशेषता है कि चाहे अच्छा हो या बुरा यहां मिल ज़रूर जाता है।
ऐसी ही एक प्रखर और अद्भुत लेखिका को पढ़ते पढ़ते उनके गांव हो आया और ताज़्जुब की बात इतनी है कि जिन्हें इंटरनेट या पढ़ने का एक अक्षर ना पता हो, उन्हें इंटरनेट की सबसे बड़ी वेबसाइट विकिपीडिया पर स्थान मिला हो और वह भी लेखन के क्षेत्र में।
फिर आप सोचेंगे कि जिसे लिखना पढ़ना ना आता हो वह कैसा लेखक??

तो चलिए थोड़ा सा वक़्त निकालिए और पढ़िए मेरे इस लेख को जिसमें आज मैं आपको रूबरू करवाऊंगा महाराष्ट्र की एक ऐसी लेखिका से जिन्होंने कभी लिखना पढ़ना सीखा ही नहीं।
हैं ना आश्चर्यचकित करने वाली बात???

मैं बात कर रहा हूं बहिणाबाई चौधरी की,
जी हां शायद इस नाम को बहुत कम लोगों ने सुना होगा या फिर सुना होगा तो केवल महाराष्ट्र के कुछ साहित्य प्रेमियों ने सुना होगा।

महाराष्ट्र के जलगांव में जन्मी मराठी कवियत्री बहिणाबाई चौधरी, जिनका जन्म ११ अगस्त १८८० में महाजन परिवार में हुआ था।
शादी कुछ तेरह साल में नाथूजी चौधरी से हुई लेकिन पति की आकस्मिक मृत्यु ने बहिणाबाई को समाज के हर दुख से अवगत करा दिया। दो पुत्र ओंकार चौधरी और सोपानदेव चौधरी और एक  पुत्री काशी का पालन पोषण बहिणाबाई ने बड़े ही संघर्षों के साथ किया।
अनपढ़ होने के नाते बहिणाबाई लिख तो नहीं पाती थी लेकिन कुछ पंक्तियां उनके संघर्षों और जीवन के परिपेक्ष्य को दर्शाती थी जिन्हें वो केवल गुनगुनाती थी। जब उनकी गुनगुनाहट उनके पुत्र सोपानदेव ने सुनी तो उन्हें लगा कि अनपढ़ होकर भी उनकी मां कितनी अच्छी कविताएं अपने मन में बना लेती हैं।
तब सोपानदेव ने उनकी गुनगुनाहट में गायी हुई पंक्तियों को एक डायरी में लिखना शुरू किया।

उनका कहना था कि एक बार वो जब चौथी कक्षा में थे तब उन्होंने अपनी एक पुस्तक में सावित्री और सत्यवान की एक कहानी पढ़ रहे थे और उनकी अनपढ़ मां उन्हें सुन रही थी, और सुबह जब उनकी आंख खुली तो मां के मुख से कुछ पंक्तियां गाने की धुन में सुनाई दे रही थीं, वो कुछ इस प्रकार थी,

(१) सावित्री सावित्री सत्यवानाची सावली,
निघे सत्यवान त्याचं मागे धावली
(सावित्री सत्यवान की छाया थी यानी परछाई,
उनकी मृत्यु के बाद भी उनका पीछा की)

आगे चलकर सोपानदेव ने उनकी तमाम गुनगुनाई हुई पंक्तियों का संग्रह बना उसे प्रकाशित करवाया और मां बहिणाबाई के गले से निकले हुए गानों को अमर कर दिया और हम जैसे नए लेखकों को जीवन के अनेक मर्म को समझने का अवसर दिया।
आगे चलकर सोपानदेव भी एक बड़े लेखक बने और उनकी भी तमाम कृतियों को पढ़ने में आनंद मिलता है।

बहिणाबाई के जीवन मर्म को समझने के लिए उनकी कुछ पंक्तियां आप लोगों से बांट रहा हूं,
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(२)
अरे संसार संसार, जसा तवा चुल्ह्यावर
(वैवाहिक जीवन जैसे तवा चूल्हे पर)

आधी हाताला चटके तंव्हा मिळते भाकर
(पहले हाथ को आग के चटके, फिर मिले भोजन)

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(३)
असा राजा शेतकरी चालला रे आढवनी
(किसान खेत का राजा नंगे पांव चल रहा है)
देखा त्याचा पायाखाले काटे गेले वाकसनी
(उसके पैरों के नीचे कांटे चुभे हुए हैं)

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(४)
अरे घरोटा घारोटा, तुझ्यातून पडे पिठी
तसं तसं माझं गाणं, पोटातून येतं व्होटी
(अरे वो पत्थर पीसने वाले
जैसे तुझसे अनाज पिसकर (आंटा)
बाहर निकलता है,
वैसे ही मेरे गाने मेरे पेट से होठों तक आते हैं)

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(५)
आला सास, गेला सास, जीवा तुझं रे तंतर,
अरे जगनं-मरनं एका सासाचं अंतर!’
(सांस आने और सांस जाने का नाम ही जीवन है,
इसलिए जीना मरना बस एक सांस का अंतर है)

ऐसी पंक्तियों को पढ़कर आपको जीवन के संघर्षों को समझने में आसानी होगी शायद इसलिए भी आप तक इन पंक्तियों को ला रहा हूं।

३ दिसंबर सन १९५१ में ऐसी अविस्मरणीय और अद्भुत पंक्तियों को लिखने वाली बहिणाबाई का निधन हो गया और रह गई तो उनकी गुनगुनाई हुई कुछ धरोहर जिसे हम जैसे साहित्य प्रेमी सदियों पढ़ेंगे।

आप सब चाहें तो इंटरनेट पर इस नाम को सर्च कर इनकी तमाम कविताएं पढ़ सकते हैं और दोस्तों से भी शेयर कर सकते हैं।
आज के लिए बस इतना ही, आगे मिलेंगे किसी और गुमनाम हुई प्रतिभा के साथ। तब तक के लिए इजाज़त दीजिए।

और हां, अपना सुझाव और साथ देना ना भूलें।

आपका धन्यवाद
राम त्रिपाठी

Tuesday, 17 May 2016

बदलाव...

तुम्हारी प्रतीक्षा में
यह बदलाव स्वाभाविक था..
निष्ठुर बनना मेरा औचित्य नहीं था
और हुआ भी नहीं
मैं बस अन्य को
ऐसा प्रतीत होने लगा
फिर जैसे कोई स्वछंद हवा
जो आच्छादित वृक्षों की निद्रा असहज
भंग कर देती है...
वैसे ही निर्भीक हो गया..

और जैसे कोई सरिता(नदी) पत्थरों को चीरती
मुस्कुराती
बह निकलती है ना
अपने अस्तित्व को
विशाल उदधि(समंदर) में समाप्त करने..
ठीक उसी तरह..
किसी समूह में मिलकर
सुख मिलने लगा
अलगाव नहीं
और ना ही स्वयं को भिन्न दिखाना...

मैं बस ऐसा प्रतीत भर होता हूँ
दर्पण अब भी मेरे भीतर का
वही मनुष्य उकेरना चाहता है
जो व्यर्थ मुस्कुराता था...

-राम त्रिपाठी
ब्लॉग_मेरी कलम

Thursday, 12 May 2016

भावनायें

मैं जब भी आहत होता हूँ
तो आसमान निहारता हूँ
और यह देखता हूँ
कि कोई तारा आसमान में
अकेला है क्या...
और शरीर के दाहिने बाजू
एक मद्धम सा तारा
अकेला दिखता है...

फिर मुस्कुराता हूँ
और भूल जाता हूँ,
उन लबों को जिसने मुझे यूँ ही कुछ भी बोल दिया..
हाँ बस इतना कहना चाहता हूँ
कि मेरा शरीर, मेरा ह्रदय, मेरे नेत्र
यह सब द्वितीय हैं..

मेरी भावनायें प्रथम है...

-राम त्रिपाठी

Friday, 1 April 2016

कुछ भी ना लिखूँ...

कुछ भी लिख देने से अच्छा है
कुछ भी ना लिखूँ..
क्यूँ पन्नों पर बे फिज़ूल
स्याही को फैलाता चलूँ

ऐसा लगता है
कुछ रोज़ घर की दीवारों से
बेमतलब की बात करूँ
उनकी दरारों को छूकर
उनके दर्द का एहसास बनूँ
और खिड़कियों की काँच पर लगी भाप पर
तुम्हारा नाम लिखूँ
फिर इंतज़ार करूँ
एक ख्याल के दिल से टकराने का...
और तुझे पहले से करीब पाने का..

इंतज़ार भी मोहब्बत के महीने का
और तेरी जुल्फों की छाँव में सुकूँ पाने का..
एक सुबह जो तेरे चेहरे के मानिंद हो
और एक शाम तेरी आगोश में गुनगुनाने का..

ऐसे ही कुछ भी लिख देने से तो अच्छा है ना
की कुछ भी ना लिखूँ...

©राम